केदारनाथ धाम को लेकर यह मान्यता है कि यहां पर भगवान से भक्तों का सीधा मिलन होता है. पौराणिक कथाओं में उल्लेख मिलता है कि भगवान भोलेनाथ ने पांडवों को इस स्थान पर दर्शन देकर वंश व गुरु हत्या के पाप से मुक्त किया था. उसके बाद 9वीं शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य केदारनाथ धाम से सशरीर स्वर्ग गए थे. केदारनाथ धाम में यह उल्लेख मिलता है कि कोई व्यक्ति भगवान केदारनाथ के दर्शन किए बिना बद्रीनाथ क्षेत्र की यात्रा करता है तो उसकी यात्रा सफल नहीं होती.
भारत में लुभावनी हिमालय के बीच बसा, केदारनाथ अत्यधिक आध्यात्मिक महत्व का स्थान है। यह हिंदुओं के लिए एक पूजनीय तीर्थ स्थल है, जो दुनिया के सभी कोनों से भक्तों को आकर्षित करता है। केदारनाथ प्राचीन और पवित्र केदारनाथ मंदिर का घर है, जो हिंदू पौराणिक कथाओं में प्रमुख देवताओं में से एक भगवान शिव को समर्पित है। यह सुरम्य गंतव्य न केवल एक दिव्य अनुभव प्रदान करता है, बल्कि प्रकृति की सुंदरता को उसके बेहतरीन रूप में देखने का मौका भी प्रदान करता है। इसलिए, हमारे साथ जुड़ें क्योंकि हम केदारनाथ के चमत्कारों का पता लगाने, इसके समृद्ध इतिहास को उजागर करने और इसके शांत और शांतिपूर्ण माहौल में खुद को विसर्जित करने के लिए एक यात्रा शुरू करते हैं।
केदारनाथ मंदिर भारत के उत्तराखंड राज्य में स्थित एक प्रसिद्ध हिंदू तीर्थ स्थल है। मंदिर 3,583 मीटर (11,755 फीट) की ऊंचाई पर है और आम जनता के लिए केवल अप्रैल (अक्षय तृतीया) और नवंबर (कार्तिक पूर्णिमा, शरद ऋतु पूर्णिमा) के महीनों के बीच खुला है। सर्दियों के दौरान, मंदिर के विग्रह (देवता) को अगले छह महीनों के लिए पूजा करने के लिए ऊखीमठ ले जाया जाता है। केदारनाथ के प्राचीन मंदिर ज्योतिर्लिंग के पास चोराबाड़ी ग्लेशियर से निकलने वाली, अलकनंदा, मंदाकिनी नदी की सहायक नदी है।
गौरव और इतिहास
केदारनाथ की बड़ी महिमा है। उत्तराखण्ड में बद्रीनाथ और केदारनाथ-ये दो प्रधान तीर्थ हैं, दोनो के दर्शनों का बड़ा ही माहात्म्य है। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किये बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनाथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों के नाश पूर्वक जीवन मुक्ति की प्राप्ति बतलाया गया है।
इस मन्दिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थ रहा है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये १२-१३वीं शताब्दी का है। ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनवाया हुआ है जो १०७६-९९ काल के थे।[4] एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है।
केदारनाथ जी के तीर्थ पुरोहित इस क्षेत्र के प्राचीन ब्राह्मण हैं, उनके पूर्वज (ऋषि-मुनि) भगवान नर-नारायण एवं दक्ष प्रजापति के समय से इस स्वयंभू ज्योतिर्लिंग की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं। पांडवों के पोत्र राजा जन्मेजय ने भी उन्हें इस मंदिर की पूजा अर्चना का अधिकार दिया था एवं सम्पूर्ण केदार क्षेत्र दान स्वरूप दिया था। ये लोग प्राचीन काल से ही तीर्थयात्रियों की पूजा कराते आ रहे हैं। [5] [
अंग्रेजी पर्वतारोही एरिक शिप्टन (1926) द्वारा दर्ज की गई एक परंपरा के अनुसार, “कई सैकड़ों साल पहले” एक पुजारी केदारनाथ और बद्रीनाथ दोनों मंदिरों में सेवाएं देता था, और दोनों स्थानों के बीच प्रतिदिन यात्रा करता था। आदि गुरु शंकराचार्य जी के समय से यहां पर दक्षिण भारत से जंगम समुदाय के रावल शिवलिंग की पूजा करते हैँ। [4][5][9] मंदिर के सामने पुरोहितों की अपने यजमानों एवं अन्य यात्रियों के लिये पक्की धर्मशालाएं हैं, जबकि मंदिर के पुजारी एवं अन्य कर्मचारियों के भवन मंदिर के दक्षिण की ओर हैं ।
मंदिर वास्तुशिल्प
यह मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मन्दिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, कहा जाता है कि इस मन्दिर का जीर्णोद्धार आदि गुरु शंकराचार्य ने करवाया था। मन्दिर को तीन भागों में बांटा जा सकता है १.गर्भ गृह , २.मध्यभाग ३. सभा मण्डप । गर्भ गृह के मध्य में भगवान श्री केदारेश्वर जी का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग स्थित है।
जिसके अग्र भाग पर गणेश जी की आकृति और साथ ही माँ पार्वती का श्री यंत्र विद्यमान है । ज्योतिर्लिंग पर प्राकृतिक यगयोपवित और ज्योतिर्लिंग के पृष्ठ भाग पर प्राकृतिक स्फटिक माला को आसानी से देखा जा सकता है ।श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग में नव लिंगाकार विग्रह विधमान है इस कारण इस ज्योतिर्लिंग को नव लिंग केदार भी कहा जाता है स्थानीय लोक गीतों से इसकी पुष्टि होती है । श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के चारों ओर विशालकाय चार स्तंभ विद्यमान है जिनको चारों वेदों का धोतक माना जाता है , जिन पर विशालकाय कमलनुमा मन्दिर की छत टिकी हुई है । ज्योतिर्लिंग के पश्चिमी ओर एक अखंड दीपक है जो कई हजारों सालों से निरंतर जलता रहता है जिसकी हेर देख और निरन्तर जलते रहने की जिम्मेदारी पूर्व काल से तीर्थ पुरोहितों की है ।
गर्भ गृह की दीवारों पर सुन्दर आकर्षक फूलों और कलाकृतियों को उकर कर सजाया गया है । गर्भ गृह में स्थित चारों विशालकाय खंभों के पीछे से स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान श्री केदारेश्वर जी की परिक्रमा की जाती है । पूर्व काल में श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के चारो ओर सुन्दर कटवे पत्थरों से निर्मित जलेरी बनाई गई थी । श्री योगेश जिन्दल, मैनेजिक डारेक्टर, काशी विश्वनाथ स्टील ,काशीपुर वालों ने मंदिर गर्भ गृह में आठ मिमी मोटी तांबे की नई जलेरी लगवाई थी (वर्ष 2003-04 )अब वतर्मान काल में जलेरी के साथ -साथ गर्भ गृह की दीवारों और मन्दिर के सभी दरवाजों को अपने तीर्थ पुरोहित की प्रेणना से किसी और दानी दाता द्वारा रजत (चाँदी) की करवा दी गई है । इसके गर्भगृह की अटारी पर सोने का मुलम्मा चढ़ा है।
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मन्दिर की पूजा श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। प्रात:काल में शिव-पिण्ड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। तत्पश्चात धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है। इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं।
कथा
इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार शृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित हैं।
पंचकेदार की कथा ऐसी मानी जाती है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे। दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था। अत: भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ संकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं।
स्थिति
चौरीबारी हिमनद के कुंड से निकलती मंदाकिनी नदी के समीप, केदारनाथ पर्वत शिखर के पाद में, कत्यूरी शैली द्वारा निर्मित, विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर (३,५६२ मीटर) की ऊँचाई पर अवस्थित है। इसे १००० वर्ष से भी पूर्व का निर्मित माना जाता है। जनश्रुति है कि इसका निर्माण पांडवों या उनके वंशज जन्मेजय द्वारा करवाया गया था। साथ ही यह भी प्रचलित है कि मंदिर का जीर्णोद्धार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य[10] ने करवाया था। मंदिर के पृष्ठभाग में शंकराचार्य जी की समाधि है। राहुल सांकृत्यायन द्वारा इस मंदिर का निर्माणकाल १०वीं व १२वीं शताब्दी के मध्य बताया गया है। यह मंदिर वास्तुकला का अद्भुत व आकर्षक नमूना है। मंदिर के गर्भ गृह में नुकीली चट्टान भगवान शिव के सदाशिव रूप में पूजी जाती है। केदारनाथ मंदिर के कपाट मेष संक्रांति से पंद्रह दिन पूर्व खुलते हैं और अगहन संक्रांति के निकट बलराज की रात्रि चारों पहर की पूजा और भइया दूज के दिन, प्रातः चार बजे, श्री केदार को घृत कमल व वस्त्रादि की समाधि के साथ ही, कपाट बंद हो जाते हैं। केदारनाथ के निकट ही गाँधी सरोवर व वासुकीताल हैं। केदारनाथ पहुँचने के लिए, रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी होकर, २० किलोमीटर आगे गौरीकुंड तक, मोटरमार्ग से और १४ किलोमीटर की यात्रा, मध्यम व तीव्र ढाल से होकर गुज़रनेवाले, पैदल मार्ग द्वारा करनी पड़ती है।
मंदिर मंदाकिनी के घाट पर बना हुआ हैं भीतर घारे अन्धकार रहता है और दीपक के सहारे ही शंकर जी के दर्शन होते हैं। शिवलिंग स्वयंभू है। सम्मुख की ओर यात्री जल-पुष्पादि चढ़ाते हैं और दूसरी ओर भगवान को घृत अर्पित कर बाँह भरकर मिलते हैं, मूर्ति चार हाथ लम्बी और डेढ़ हाथ मोटी है। मंदिर के जगमोहन में द्रौपदी सहित पाँच पाण्डवों की विशाल मूर्तियाँ हैं। मंदिर के पीछे कई कुण्ड हैं, जिनमें आचमन तथा तर्पण किया जा सकता है।[11]
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